लेख-निबंध >> ईश्वर क्या है ? ईश्वर क्या है ?जे. कृष्णमूर्ति
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‘ईश्वर क्या है ?’ जे.कृष्णमूर्ति की चर्चित और लोकप्रिय पुस्तकों में से एक है। यह पुस्तक उस पावन परमात्मा के लिए हमारी खोज को केंद्र में रखती है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘ईश्वर क्या है ?’ जे.कृष्णमूर्ति की चर्चित और लोकप्रिय
पुस्तकों में से एक है। यह पुस्तक उस पावन परमात्मा के लिए हमारी खोज को
केंद्र में रखती है।
‘‘कभी आप सोचते हैं कि जीवन यांत्रिक है तथा कठिन अवसरों पर, जब दुख और असमंजस घेर लेते हैं तो आप आस्था की ओर लौट आते हैं, मार्गदर्शन और सहायता के लिए किसी परम सत्ता की ओर ताकने लगते हैं।’’
कृष्णमूर्ति उस ‘रहस्यमय परम सत्ता’ को जानकारी के क्षेत्र में लाने के प्रयासों पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। उनके नाकाफीपन का व्यापक विवेचन करते हैं तथा यह स्पष्ट करते हैं कि जब हम अपनी वैचारिकता के माध्यम से खोजना बंद कर दें, केवल तभी हम यथार्थ सत्य अथवा आनंद की अनुभूति कर पाएंगे।
‘‘कभी आप सोचते हैं कि जीवन यांत्रिक है तथा कठिन अवसरों पर, जब दुख और असमंजस घेर लेते हैं तो आप आस्था की ओर लौट आते हैं, मार्गदर्शन और सहायता के लिए किसी परम सत्ता की ओर ताकने लगते हैं।’’
कृष्णमूर्ति उस ‘रहस्यमय परम सत्ता’ को जानकारी के क्षेत्र में लाने के प्रयासों पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। उनके नाकाफीपन का व्यापक विवेचन करते हैं तथा यह स्पष्ट करते हैं कि जब हम अपनी वैचारिकता के माध्यम से खोजना बंद कर दें, केवल तभी हम यथार्थ सत्य अथवा आनंद की अनुभूति कर पाएंगे।
प्राक्कथन
जिड्डू कृष्णमूक्ति का जन्म 1895 ई. में भारत के वर्तमान आंध्र प्रदेश
राज्य में हुआ था। जब वे तेरह वर्ष के थे, तो थियोसोफिकल सोसाइटी ने
उन्हें अपनी देख-रेख में ले लिया तथा यह घोषित किया कि उनमें आगामी
विश्व-शिक्षक मैत्रेय बुद्ध का अवतरण होगा। इस अवतरण के विषय में सोसाइटी
में पूर्व से ही मान्यता थी। बाद के वर्षों में कृष्णमूर्ति एक ऐसे
प्रभावशाली और स्वतंत्रचेत्ता शिक्षक के रूप में हमारे सामने आते हैं,
जिन्हें किसी श्रेणी में परिभाषित नहीं किया जा सकता; उनकी वार्ताएं तथा
लेखन किसी भी धर्मविशेष से नहीं जुड़े हैं और उनकी शिक्षाएं केवल पूर्व
तथा पश्चिम के लिए नहीं, अपितु संपूर्ण मानवता के लिए हैं। अपनी मसीहाई
छवि को दृढ़तापूर्वक अस्वीकृत करते हुए कृष्णमूर्ति ने एक बड़े और समृद्ध
संगठन को भंग कर दिया, जो उन्हीं को केंद्र में रखकर निर्मित किया गया था;
उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि सत्य एक ‘मार्गरहित
भूमि’
है, और उस तक किसी भी औपचारिक धर्म, दर्शन अथवा संप्रदाय के माध्यम से
नहीं पहुंचा जा सकता।
इसके उपरांत कृष्णमूर्ति ने गुरु कहलाने से, जो विशेषण उन पर प्रायः आरोपित किया जाता रहा, आग्रहपूर्वक इनकार किया। पूरे विश्व में एक विशाल श्रोतावर्ग उनकी ओर आकर्षित होता रहा, किंतु कृष्णमूर्ति ने कभी सत्ता प्रामाण्य का दावा नहीं किया, शिष्य नहीं चाहे। वे समूह से नहीं, सीधे व्यक्ति से बात कर रहे थे, वह भी मित्र की तरह। उनकी शिक्षाओं के केंद्र में इस सत्य का बोध है कि इस समाज में कोई भी आधारभूत परिवर्तन केवल वैयक्तिक चेतना के रूपांतरण द्वारा ही लाया जा सकता है। धार्मिक और राष्ट्रवादी संस्कारों द्वारा मनुष्य को सीमित तथा विभाजित करने वाले प्रभावों को ठीक से समझ लेने की आवश्यकता पर उन्होंने निरंतर ज़ोर दिया। कृष्णमूर्ति ने एक खुलेपन की, परिधियों से स्वातंत्र्य की बात हमेशा उठाई-‘‘मस्तिष्क में वह विराट अवकाश, जिसमें वह अकल्पनीय ऊर्जा है।’’ ऐसा प्रतीत होता है कि यही उनकी सर्जनात्मकता का अक्षय स्रोत भी था और विश्व के विभिन्न स्थानों के, इतने विस्तीर्ण विविधता लिए लोगों के जीवन की दिशा बदल देने वाले उनके शब्दों के उनकी उपस्थिति के गहन अमुखर प्रभाव की कुंजी भी इसी में छिपी है।
1986 ई. में नब्बे वर्ष की आयु में अपनी मृत्यु तक कृष्णमूर्ति पूरे विश्व में विभिन्न स्थानों पर अपनी बात कहते रहे। उनकी वार्ताएं व संवाद, दैनंदिनियां व पत्र पाठ से अधिक पुस्तकों में संगृहीत हैं। शिक्षाओं के इस विशाल भंडार से विविध विषयों पर आधारित प्रस्तुत पुस्तकमाला का संकलन किया गया है। प्रत्येक पुस्तक एक ऐसे विषय को केंद्रबिंदु बनाती है, जिसकी हमारे जीवन में विशिष्ट प्रासंगिकता तथा महत्त्व है। यह पुस्तक ईश्वर क्या है ? इसी माला का एक पुष्प है।
इसके उपरांत कृष्णमूर्ति ने गुरु कहलाने से, जो विशेषण उन पर प्रायः आरोपित किया जाता रहा, आग्रहपूर्वक इनकार किया। पूरे विश्व में एक विशाल श्रोतावर्ग उनकी ओर आकर्षित होता रहा, किंतु कृष्णमूर्ति ने कभी सत्ता प्रामाण्य का दावा नहीं किया, शिष्य नहीं चाहे। वे समूह से नहीं, सीधे व्यक्ति से बात कर रहे थे, वह भी मित्र की तरह। उनकी शिक्षाओं के केंद्र में इस सत्य का बोध है कि इस समाज में कोई भी आधारभूत परिवर्तन केवल वैयक्तिक चेतना के रूपांतरण द्वारा ही लाया जा सकता है। धार्मिक और राष्ट्रवादी संस्कारों द्वारा मनुष्य को सीमित तथा विभाजित करने वाले प्रभावों को ठीक से समझ लेने की आवश्यकता पर उन्होंने निरंतर ज़ोर दिया। कृष्णमूर्ति ने एक खुलेपन की, परिधियों से स्वातंत्र्य की बात हमेशा उठाई-‘‘मस्तिष्क में वह विराट अवकाश, जिसमें वह अकल्पनीय ऊर्जा है।’’ ऐसा प्रतीत होता है कि यही उनकी सर्जनात्मकता का अक्षय स्रोत भी था और विश्व के विभिन्न स्थानों के, इतने विस्तीर्ण विविधता लिए लोगों के जीवन की दिशा बदल देने वाले उनके शब्दों के उनकी उपस्थिति के गहन अमुखर प्रभाव की कुंजी भी इसी में छिपी है।
1986 ई. में नब्बे वर्ष की आयु में अपनी मृत्यु तक कृष्णमूर्ति पूरे विश्व में विभिन्न स्थानों पर अपनी बात कहते रहे। उनकी वार्ताएं व संवाद, दैनंदिनियां व पत्र पाठ से अधिक पुस्तकों में संगृहीत हैं। शिक्षाओं के इस विशाल भंडार से विविध विषयों पर आधारित प्रस्तुत पुस्तकमाला का संकलन किया गया है। प्रत्येक पुस्तक एक ऐसे विषय को केंद्रबिंदु बनाती है, जिसकी हमारे जीवन में विशिष्ट प्रासंगिकता तथा महत्त्व है। यह पुस्तक ईश्वर क्या है ? इसी माला का एक पुष्प है।
एक
मन ज्ञात है; ज्ञात वह है जिसका अनुभव हम कर चुके हैं। उसी माप से हम
अज्ञात को जानने का प्रयास करते हैं। किंतु यह बात स्पष्ट है कि ज्ञात कभी
अज्ञात को नहीं जान सकता; यह केवल उसी को जान सकता है जिसका अनुभव इसने
किया है, जो इसने सीखा है, संचित किया है। क्या मन अज्ञात को जानने की
अपनी असमर्थता के सत्य को देख सकता है ?
निश्चित ही, यदि मैं स्पष्ट रूप से देख लूं कि मेरा मन अज्ञात को नहीं जान सकता, तो भीतर पूर्णतः मौन होता है। यदि मुझे ऐसा लगता है कि मैं ज्ञात की क्षमताओं से अज्ञात पर पकड़ बना सकता हूं, तो मैं बहुत शोर मचाता हूं, बातें करता हूं, मैं इस तक पहुंचने का कोई मार्ग खोजने का प्रयास, करता हूं, परंतु यदि मन को, अज्ञात को जानने हेतु अपनी पूर्ण अक्षमता का एहसास हो जाए, यदि इसे इस बात का बोध हो जाए कि यह अज्ञात की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ा सकता, तब क्या होता है ? तब मन चुप हो जाता है। यह हताश नहीं है, अब यह कुछ भी नहीं खोज रहा है।
खोज की गतिविधि ज्ञात से ज्ञात की ओर ही हो सकती है; मन तो बस यही कर सकता है कि जान ले कि यह गतिविधि अज्ञात को कभी नहीं खोज पाएगी। ज्ञात की ओर से की गई प्रत्येक चेष्टा ज्ञात के क्षेत्र में ही होती है। यही एक बात है जो मुझे महसूस करनी होगी, जिसका मुझे प्रत्यक्ष बोध करना होगा। तब बिना किसी उद्दीपन के, बिना कोई प्रयोजन बीच में लाए, मन मौन हो जाता है।
क्या इस बात की तरफ आपका कभी ध्यान नहीं गया कि प्रेम मौन होता है ?-यह किसी का हाथ पकड़ते समय, या स्नेहपूर्वक किसी बच्चे को निहारते हुए अथवा संध्या के सौंदर्य को ग्रहण के क्षणों में हो सकता है। प्रेम का कोई अतीत या भविष्य नहीं होता, और इसीलिए इसमें मौन असाधारण अवस्था होती है। और बिना इस मौन के, जो कि पूर्ण रिक्तता है, सर्जन होता ही नहीं। अपनी क्षमताओं में आप बड़े चतुरे हो सकते हैं; किंतु जहां सर्जन नहीं है, वहां विनाश है, क्षय है, और तब मन का क्षरण होने लगता है, वह मुरझा जाता है, बिखर जाता है। जब मन रिक्त, मौन होता है, जब यह पूर्ण निषेध की अवस्था में होता है-जो स्तब्धता नहीं है, न ही विधिपरक होने का विपरीत है, अपितु एक पूर्णतः भिन्न अवस्था है जिसमें समस्त विचार का अवसान हो गया है-केवल तभी उसका आविर्भाव संभव है, जो अनाम है।
निश्चित ही, यदि मैं स्पष्ट रूप से देख लूं कि मेरा मन अज्ञात को नहीं जान सकता, तो भीतर पूर्णतः मौन होता है। यदि मुझे ऐसा लगता है कि मैं ज्ञात की क्षमताओं से अज्ञात पर पकड़ बना सकता हूं, तो मैं बहुत शोर मचाता हूं, बातें करता हूं, मैं इस तक पहुंचने का कोई मार्ग खोजने का प्रयास, करता हूं, परंतु यदि मन को, अज्ञात को जानने हेतु अपनी पूर्ण अक्षमता का एहसास हो जाए, यदि इसे इस बात का बोध हो जाए कि यह अज्ञात की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ा सकता, तब क्या होता है ? तब मन चुप हो जाता है। यह हताश नहीं है, अब यह कुछ भी नहीं खोज रहा है।
खोज की गतिविधि ज्ञात से ज्ञात की ओर ही हो सकती है; मन तो बस यही कर सकता है कि जान ले कि यह गतिविधि अज्ञात को कभी नहीं खोज पाएगी। ज्ञात की ओर से की गई प्रत्येक चेष्टा ज्ञात के क्षेत्र में ही होती है। यही एक बात है जो मुझे महसूस करनी होगी, जिसका मुझे प्रत्यक्ष बोध करना होगा। तब बिना किसी उद्दीपन के, बिना कोई प्रयोजन बीच में लाए, मन मौन हो जाता है।
क्या इस बात की तरफ आपका कभी ध्यान नहीं गया कि प्रेम मौन होता है ?-यह किसी का हाथ पकड़ते समय, या स्नेहपूर्वक किसी बच्चे को निहारते हुए अथवा संध्या के सौंदर्य को ग्रहण के क्षणों में हो सकता है। प्रेम का कोई अतीत या भविष्य नहीं होता, और इसीलिए इसमें मौन असाधारण अवस्था होती है। और बिना इस मौन के, जो कि पूर्ण रिक्तता है, सर्जन होता ही नहीं। अपनी क्षमताओं में आप बड़े चतुरे हो सकते हैं; किंतु जहां सर्जन नहीं है, वहां विनाश है, क्षय है, और तब मन का क्षरण होने लगता है, वह मुरझा जाता है, बिखर जाता है। जब मन रिक्त, मौन होता है, जब यह पूर्ण निषेध की अवस्था में होता है-जो स्तब्धता नहीं है, न ही विधिपरक होने का विपरीत है, अपितु एक पूर्णतः भिन्न अवस्था है जिसमें समस्त विचार का अवसान हो गया है-केवल तभी उसका आविर्भाव संभव है, जो अनाम है।
मुंबई,
6 जनवरी 1960
6 जनवरी 1960
दो
जीवन के बारे में यंत्रवादी मत यह है कि मनुष्य चूंकि अपने वातावरण तथा
विविध प्रतिक्रियाओं का परिणाम मात्र है, जो केवल इंद्रियों द्वारा ही
प्रत्यक्ष हो सकता है, इसलिए वातावरण तथा प्रतिक्रियाएं एक ऐसी बुद्धिसंगत
प्रणाली द्वारा नियंत्रित होनी चाहिए जिसमें व्यक्ति को केवल बने-बनाए
ढांचे के भीतर ही कार्य करने की अनुमति हो। कृपया जीवन के प्रति इस
यंत्रवादी दृष्टि के पूरे निहितार्थ को समझ लीजिए। यह मत किसी परम,
लोकोत्तर, सत्ता की कल्पना नहीं करता है, ऐसा कुछ नहीं है जो निरंतर बना
रहे; यह मृत्यु के बाद किसी प्रकार के जीवन को स्वीकार नहीं करता है; इसके
अनुसार जीवन और कुछ नहीं बस एक अल्प अवधि है जो पूरी तरह मिट जाने की ओर
अग्रसर है। चूंकि मनुष्य पर्यावरणीय प्रतिक्रियाओं के परिणाम के अतिरिक्त
कुछ नहीं है, उसका संबंध बस अपनी स्वार्थपूर्ण सुरक्षा से है, इसलिए शोषण,
क्रूरता तथा युद्ध के तंत्र की निर्मिति में उसका योगदान रहा है। इसलिए
उसके क्रियाकलापों को परिवेश के परिवर्तन व नियंत्रण द्वारा ही ढालना और
संचालित करना पड़ेगा।
फिर वे लोग हैं जो इस मत को स्वीकार करते हैं कि मनुष्य सारभूत रूप से दिव्य है, उसकी नियति किसी परम प्रज्ञा द्वारा नियंत्रित व निर्देशित है। ये दावा करते हैं कि ये ईश्वर, पूर्णता, स्वतंत्रता, आनंद अस्तित्व की एक ऐसी अवस्था की खोज कर रहे हैं जिसमें सभी व्यक्तिपरक अंतर्दंद्व समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य के भाग्य को निर्देशित करने वाली सर्वोच्च सत्ता में उनका विश्वास आस्था पर आधारित है। वे कहेंगे कि हम लोकोत्तर सत्ता या उच्चतम प्रज्ञा ने ही संसार का निर्माण किया है तथा ‘मैं’, अहं, व्यक्ति अपने आपमें शाश्वत है वह उसमें नित्यता का गुण है।
कभी आप सोचते हैं कि जीवन यांत्रिक है, तथा अन्य अवसरों पर जब दुख और असमंजस घेर लेते हैं तो आप आस्था की ओर लौट आते हैं, मार्गदर्शन और सहायता के लिए किसी परम सत्ता की ओर ताकने लगते हैं। आप इन दो विपरीत ध्रुवों के बीच डोलते रहते हैं, जबकि इन विपरीत ध्रुवों के भ्रम को समझ कर ही आप स्वयं को सीमाओं तथा अटकावों से मुक्त कर सकते हैं। आप प्रायः कल्पना कर लेते हैं कि आप इनसे मुक्त हैं, किंतु आप उनसे मूलभूत रूप से मुक्त तभी हो पाते हैं जब आप इन सीमाओं के निर्माण की पूरी प्रक्रिया को समझ लेते हैं और इनका अंत कर देते हैं। आप यथार्थ को, ‘जो है’ उसे तब तक उसकी व्यापकता में नहीं समझ सकते जब तक अज्ञान की अनादि प्रक्रिया जारी है। जब यह प्रक्रिया थम जाती है, जिसने अपनी लालसा की ऐच्छिक गतिविधियों से स्वयं को बनाए रखा था, तब वह विद्यामान होता है जिसे कोई चाहे तो यथार्थ, सत्य, परमानंद कह सकता है।
फिर वे लोग हैं जो इस मत को स्वीकार करते हैं कि मनुष्य सारभूत रूप से दिव्य है, उसकी नियति किसी परम प्रज्ञा द्वारा नियंत्रित व निर्देशित है। ये दावा करते हैं कि ये ईश्वर, पूर्णता, स्वतंत्रता, आनंद अस्तित्व की एक ऐसी अवस्था की खोज कर रहे हैं जिसमें सभी व्यक्तिपरक अंतर्दंद्व समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य के भाग्य को निर्देशित करने वाली सर्वोच्च सत्ता में उनका विश्वास आस्था पर आधारित है। वे कहेंगे कि हम लोकोत्तर सत्ता या उच्चतम प्रज्ञा ने ही संसार का निर्माण किया है तथा ‘मैं’, अहं, व्यक्ति अपने आपमें शाश्वत है वह उसमें नित्यता का गुण है।
कभी आप सोचते हैं कि जीवन यांत्रिक है, तथा अन्य अवसरों पर जब दुख और असमंजस घेर लेते हैं तो आप आस्था की ओर लौट आते हैं, मार्गदर्शन और सहायता के लिए किसी परम सत्ता की ओर ताकने लगते हैं। आप इन दो विपरीत ध्रुवों के बीच डोलते रहते हैं, जबकि इन विपरीत ध्रुवों के भ्रम को समझ कर ही आप स्वयं को सीमाओं तथा अटकावों से मुक्त कर सकते हैं। आप प्रायः कल्पना कर लेते हैं कि आप इनसे मुक्त हैं, किंतु आप उनसे मूलभूत रूप से मुक्त तभी हो पाते हैं जब आप इन सीमाओं के निर्माण की पूरी प्रक्रिया को समझ लेते हैं और इनका अंत कर देते हैं। आप यथार्थ को, ‘जो है’ उसे तब तक उसकी व्यापकता में नहीं समझ सकते जब तक अज्ञान की अनादि प्रक्रिया जारी है। जब यह प्रक्रिया थम जाती है, जिसने अपनी लालसा की ऐच्छिक गतिविधियों से स्वयं को बनाए रखा था, तब वह विद्यामान होता है जिसे कोई चाहे तो यथार्थ, सत्य, परमानंद कह सकता है।
एडिंग्टन, पेनसिल्वेनिया,
12 जून 1936
12 जून 1936
तीन
संभवतः इस बात का पता लगाने की कोशिश में कुछ समय देना श्रेयस्कर होगा कि
क्या जीवन की कोई सार्थकता है भी। वह जीवन नहीं जो हम जी रहे हैं, क्योंकि
आधुनिक अस्तित्व की सार्थकता तो न के बराबर है। हम जीवन को बौद्धिक
अर्थवत्ता दे देते हैं, इसे हम सैद्धांतिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक या (यदि
आप इस शब्द का प्रयोग उचित समझें) रहस्यवादी अर्थ दे दिया करते हैं; इसमें
गहरे मायने तलाशने का प्रयास करते हैं-जैसा कि कुछ लेखकों ने इस निराशजनक
अस्तित्व से संत्रस्त होकर किया है, किसी जीवंत गहन, बुद्धिगत कारण का
आविष्कार कर लिया है। और मुझे लगता है कि यह बात बहुत ही सार्थक होगी यदि
हम भावनात्मक या बौद्धिक रूप से नहीं बल्कि वास्तविक, तथ्यपरक ढंग से
स्वयं ही यह पता लगाएं कि क्या जीवन में ऐसा कुछ है जो वस्तुतः पावन है ?
मन के अविष्कार नहीं, जिन्होंने जीवन को पवित्रता की एक भावना दे रखी है, अपितु क्या वास्तव में ऐसा कुछ है ? क्योंकि इस खोज में हम ऐतिहासिक रूप से और वस्तुस्थिति में भी अपने द्वारा बिताए जा रहे जीवन को देखते हैं-व्यापार प्रतिस्पर्द्धा, हताशा, अकेलापन दुश्चिंता एवं युद्ध में होने वाला विनाश तथा घृणा-इस तरह के जीवन का बहुत कम अर्थ है। हो सकता है हम सत्तर वर्ष जी लें, जिनमें से हमारे चालीस या पचास वर्ष किसी कार्यालय में एक से नित्यक्रम, ऊब और अकेलेपन में बीत जाएं, जिनका कुछ खास मतलब नहीं है। इस बात का एहसास होने पर पूर्वी विश्व में और यहां भी हम एक प्रतीक, एक धारणा, एक ईश्वर को अर्थवत्ता और औचित्य दे देते हैं- जो स्पष्टतः मन के ही अधिकार हैं। पूर्व में उन्होंने कहा है कि सबमें एक ही जीवन है, हत्या मत करो, ईश्वर प्रत्येक मनुष्य में विद्यामान है : विनष्ट मत करो। किंतु अगले ही क्षण वे एक दूसरे को वस्तुत:, शाब्दिक रूप से या व्यवसाय में विनष्ट कर रहे होते हैं तो जीवन के एकत्व और पावनता की इस धारणा का उनके लिए कोई ज्यादा मतलब है नहीं।
पाश्चात्य जगत में भी जीवन की असलियत को-दैनिक जीवन की क्रूरता, आक्रामकता, निर्मम प्रतिस्पर्द्धा को स्पष्ट अनुभव करते हुए हम एक प्रतीक को अर्थवान बना लेते हैं, और ये प्रतीक बहुत पवित्र माने जाते हैं जिन पर सारे धर्म आधारित हैं। अर्थात् धर्मशास्त्रियों, पुरोहितों, संतों ने अपने कुछ निजी किस्म के अनुभव किए होते हैं और ये लोग जीवन को कोई तात्पर्य दे देते हैं, और हम अपने अर्थहीन नित्यक्रम, हताशा, अकेलेपन के चलते उन अर्थों से आसक्ति बना लेते हैं और यदि हम इन सभी प्रतीकों, छवियों, विचारों और विश्वासों से छूट सकें जिनका निर्माण हम सदियों-सदियों से करते रहे हैं और जिन्हें हमने एक पवित्रभाव दे दिया है, यदि हम इन बाहर से आरोपित संस्कारों से वास्तव में मुक्त हो सकें, तब हम संभवतः स्वयं से यह पूछ सकते हैं कि क्या ऐसा कुछ है जो सत्य है, जो वस्तुतः पावन है, पवित्र है। क्योंकि यही तो है जिसे मनुष्य इस विक्षोभ, हताशा, अपराध बोध तथा मृत्यु के बीच खोज रहा है। मनुष्य इसी अनुभूति को विविध रूपों में खोजता रहा है जो क्षणभंगुर से, समय के प्रवाह से परे हो। इस सुबह क्या हम कुछ समय इस चर्चा में लगा सकते हैं कि क्या ऐसा कुछ विद्यमान है ?-किंतु वह नहीं जो आप चाहते हैं, ईश्वर नहीं, कोई अवधारणा, कोई प्रतीक नहीं। क्या आप इस सबको एक तरफ हटा कर तब खोज में उतर सकते हैं।
शब्द केवल संप्रेषण के माध्यम होते हैं, पर शब्द वस्तु नहीं हैं, और जब कोई शब्दों में उलझ जाता है तो उस प्रतीक, उन शब्दों, उन अवधारणाओं से स्वयं को छुड़ा पाना अति कठिन होता है, जिनसे अवबोध में वस्तुतः बाधा पड़ती है। यद्यपि शब्दों का प्रयोग तो करना ही पड़ता है, परंतु शब्द तथ्य नहीं होते। अतः यदि इस बारे में भी हम सजग सावधान रह सकें कि शब्द तथ्य नहीं हैं, तब इस प्रश्न में हम बहुत गहरे पैठना प्रारंभ कर सकते हैं। अर्थात मनुष्य ने अपने अकेलेपन और हताशा के चलते एक विचार को, हाथों से या मन से बनाई गई किसी छवि को पवित्रता प्रदान कर दी है। वह छवि ईसाई, हिंदू बौद्ध तथा उसी प्रकार औरों के लिए असाधारण रूप से महत्त्वपूर्ण बन गई है और उन सबने उस छवि में एक पवित्रता का भाव आरोपित कर दिया है। और क्या हम इस सबको एक तरफ हटा पाते हैं, शाब्दिक या सैद्धांतिक रूप से नहीं अपितु वस्तुतः इसे परे कर पाते हैं, इस तरह की गतिविधि की निरर्थकता को देख पाते हैं ? तब हम पूछना आरंभ कर सकते हैं-किंतु उत्तर देने वाला कोई है नहीं, क्योंकि स्वयं से किये गए किसी भी आधारभूत प्रश्न का किसी के द्वारा उत्तर दिया ही नहीं जा सकता, और अपने ही द्वारा तो एकदम नहीं।
पर हम यह कर सकते हैं कि प्रश्न रखें और उस प्रश्न को खदकने दें, खौलने दें-उस प्रश्न को गतिशील होने दें, और उस प्रश्न का अनुसरण अंत तक करने की सामर्थ्य हममें होनी चाहिए। हम इस सुबह यही पूछ रहे हैं कि क्या कुछ ऐसा है जो प्रतीक के, शब्द के पार है, कुछ ऐसा, जो यथार्थ है, सत्य है, जो अपने आप में पूर्णतः पवित्र है।
मन के अविष्कार नहीं, जिन्होंने जीवन को पवित्रता की एक भावना दे रखी है, अपितु क्या वास्तव में ऐसा कुछ है ? क्योंकि इस खोज में हम ऐतिहासिक रूप से और वस्तुस्थिति में भी अपने द्वारा बिताए जा रहे जीवन को देखते हैं-व्यापार प्रतिस्पर्द्धा, हताशा, अकेलापन दुश्चिंता एवं युद्ध में होने वाला विनाश तथा घृणा-इस तरह के जीवन का बहुत कम अर्थ है। हो सकता है हम सत्तर वर्ष जी लें, जिनमें से हमारे चालीस या पचास वर्ष किसी कार्यालय में एक से नित्यक्रम, ऊब और अकेलेपन में बीत जाएं, जिनका कुछ खास मतलब नहीं है। इस बात का एहसास होने पर पूर्वी विश्व में और यहां भी हम एक प्रतीक, एक धारणा, एक ईश्वर को अर्थवत्ता और औचित्य दे देते हैं- जो स्पष्टतः मन के ही अधिकार हैं। पूर्व में उन्होंने कहा है कि सबमें एक ही जीवन है, हत्या मत करो, ईश्वर प्रत्येक मनुष्य में विद्यामान है : विनष्ट मत करो। किंतु अगले ही क्षण वे एक दूसरे को वस्तुत:, शाब्दिक रूप से या व्यवसाय में विनष्ट कर रहे होते हैं तो जीवन के एकत्व और पावनता की इस धारणा का उनके लिए कोई ज्यादा मतलब है नहीं।
पाश्चात्य जगत में भी जीवन की असलियत को-दैनिक जीवन की क्रूरता, आक्रामकता, निर्मम प्रतिस्पर्द्धा को स्पष्ट अनुभव करते हुए हम एक प्रतीक को अर्थवान बना लेते हैं, और ये प्रतीक बहुत पवित्र माने जाते हैं जिन पर सारे धर्म आधारित हैं। अर्थात् धर्मशास्त्रियों, पुरोहितों, संतों ने अपने कुछ निजी किस्म के अनुभव किए होते हैं और ये लोग जीवन को कोई तात्पर्य दे देते हैं, और हम अपने अर्थहीन नित्यक्रम, हताशा, अकेलेपन के चलते उन अर्थों से आसक्ति बना लेते हैं और यदि हम इन सभी प्रतीकों, छवियों, विचारों और विश्वासों से छूट सकें जिनका निर्माण हम सदियों-सदियों से करते रहे हैं और जिन्हें हमने एक पवित्रभाव दे दिया है, यदि हम इन बाहर से आरोपित संस्कारों से वास्तव में मुक्त हो सकें, तब हम संभवतः स्वयं से यह पूछ सकते हैं कि क्या ऐसा कुछ है जो सत्य है, जो वस्तुतः पावन है, पवित्र है। क्योंकि यही तो है जिसे मनुष्य इस विक्षोभ, हताशा, अपराध बोध तथा मृत्यु के बीच खोज रहा है। मनुष्य इसी अनुभूति को विविध रूपों में खोजता रहा है जो क्षणभंगुर से, समय के प्रवाह से परे हो। इस सुबह क्या हम कुछ समय इस चर्चा में लगा सकते हैं कि क्या ऐसा कुछ विद्यमान है ?-किंतु वह नहीं जो आप चाहते हैं, ईश्वर नहीं, कोई अवधारणा, कोई प्रतीक नहीं। क्या आप इस सबको एक तरफ हटा कर तब खोज में उतर सकते हैं।
शब्द केवल संप्रेषण के माध्यम होते हैं, पर शब्द वस्तु नहीं हैं, और जब कोई शब्दों में उलझ जाता है तो उस प्रतीक, उन शब्दों, उन अवधारणाओं से स्वयं को छुड़ा पाना अति कठिन होता है, जिनसे अवबोध में वस्तुतः बाधा पड़ती है। यद्यपि शब्दों का प्रयोग तो करना ही पड़ता है, परंतु शब्द तथ्य नहीं होते। अतः यदि इस बारे में भी हम सजग सावधान रह सकें कि शब्द तथ्य नहीं हैं, तब इस प्रश्न में हम बहुत गहरे पैठना प्रारंभ कर सकते हैं। अर्थात मनुष्य ने अपने अकेलेपन और हताशा के चलते एक विचार को, हाथों से या मन से बनाई गई किसी छवि को पवित्रता प्रदान कर दी है। वह छवि ईसाई, हिंदू बौद्ध तथा उसी प्रकार औरों के लिए असाधारण रूप से महत्त्वपूर्ण बन गई है और उन सबने उस छवि में एक पवित्रता का भाव आरोपित कर दिया है। और क्या हम इस सबको एक तरफ हटा पाते हैं, शाब्दिक या सैद्धांतिक रूप से नहीं अपितु वस्तुतः इसे परे कर पाते हैं, इस तरह की गतिविधि की निरर्थकता को देख पाते हैं ? तब हम पूछना आरंभ कर सकते हैं-किंतु उत्तर देने वाला कोई है नहीं, क्योंकि स्वयं से किये गए किसी भी आधारभूत प्रश्न का किसी के द्वारा उत्तर दिया ही नहीं जा सकता, और अपने ही द्वारा तो एकदम नहीं।
पर हम यह कर सकते हैं कि प्रश्न रखें और उस प्रश्न को खदकने दें, खौलने दें-उस प्रश्न को गतिशील होने दें, और उस प्रश्न का अनुसरण अंत तक करने की सामर्थ्य हममें होनी चाहिए। हम इस सुबह यही पूछ रहे हैं कि क्या कुछ ऐसा है जो प्रतीक के, शब्द के पार है, कुछ ऐसा, जो यथार्थ है, सत्य है, जो अपने आप में पूर्णतः पवित्र है।
लंदन,
30 सितम्बर 1967
30 सितम्बर 1967
चार
प्रश्न : आज संसार में ईश्वर की बहुत सी अवधारणाएं हैं। आपका ईश्वर के
संबंध में क्या विचार है ?
कृष्णमूर्ति : सबसे पहले हमें यह पता लगाना चाहिए कि अवधारणा से हमारा मतलब क्या है। सोचने की प्रक्रिया से हमारा क्या अभिप्राय है ? क्योंकि अंततः हम जब किसी अवधारणा को प्रतिपादित करते हैं, जैसे ईश्वर को ही लें, तो हमारा यह प्रतिपादन यह अवधारणा हमारे संस्कारों का ही परिणाम होती है। एक तो वे लोग हैं जिन्हें बचपन से ही ईश्वर को न मानने में प्रशिक्षित किया गया है; और दूसरे वे हैं जिन्हें ईश्वर में विश्वास का प्रशिक्षण मिला है, जैसे कि आपमें से अधिकतर हैं। अत: हम अपने प्रशिक्षण के अनुसार, अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार, अपने मानसिक गठन, रुचियों-अरुचियों भय-आशाओं के अनुरूप ईश्वर की अवधारणा बना लेते हैं। तो स्पष्ट है कि जब तक हम अपने सोचने की प्रक्रिया को समझ नहीं लेते, मात्र ईश्वर की अवधारणाएं बना लेने का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि विचार तो अपनी रुचि के मुताबिक कुछ भी प्रक्षेपित कर सकता है। यह ईश्वर को निर्मित भी कर सकता है, नकार भी सकता है। हर व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियों सुखों व पीड़ाओं के अनुसार ईश्वर को आविष्कृत अथवा विनष्ट कर सकता है। इसलिए जब तक विचार सक्रिय है, नुस्खे बना रहा है, कल्पना कर रहा है, तब तक जो समय से परे है उसे कभी नहीं खोजा जा सकता। ईश्वर का यथार्थ का अन्वेषण केवल तभी हो पाता है, जब विचार का समापन हो जाता है।
अब, जब आप पूछते हैं, ‘‘आपका ईश्वर के बारे में क्या विचार है ?’’ तो आपने पहले से ही अपने विचारों की लीक बना ली है, है कि नहीं ? विचार ईश्वर को निर्मित कर सकता है तथा जो निर्माण इसने किया है, उसका अनुभव भी कर सकता है पर निश्चित ही वह सच्चा अनुभव नहीं है। यह तो विचार अपने प्रक्षेपण का ही अनुभव कर रहा है अतएव यह यथार्थ नहीं है। परंतु यदि आप और मैं इसकी गहराई को देख सकें, तो संभवतः विचारों के प्रक्षेपण मात्र से अधिक विराट किसी तत्त्व की अनुभूति कर पाएं।
वर्तमान समय में, जब दिन-ब-दिन बाह्य रूप से असुरक्षा बढ़ रही है, तो स्वभावतः आंतरिक सुरक्षा के लिए भी लालसा तीव्र होती जा रही है। चूंकि हमें बाहर सुरक्षा नहीं मिल पाती है, अतः हम इसे एक अवधारणा, एक विचार में खोजने लगते हैं और तब वह निर्मित कर लेते हैं, जिसे हम ईश्वर कहते हैं तथा वही अवधारणा हमारी सुरक्षा बन जाती है। सुरक्षा खोजने वाला मन यथार्थ को, सत्य को नहीं पा सकता है। जो समय से परे है, उसे समझने के लिए, विचार के जाल का ध्वस्त होना अनिवार्य है। शब्दों, प्रतीकों, प्रतिमाओं के बिना विचार बना नहीं रह सकता केवल तब, जब मन खामोश होता है, अपनी उधेड़बुन से मुक्त होता है, तभी यथार्थ को खोज पाने की संभावना होती है। अतः यह पूछना कि ईश्वर है या नहीं, समस्या के प्रति अपरिपक्व प्रतिक्रिया है। ईश्वर के बारे में मतों का प्रतिपादन करना वस्तुतः बचकानी वृत्ति है।
जो समय से परे है, उसकी अनुभूति, उसके बोध के लिए स्पष्टत: हमें समय की प्रक्रिया को समझना होगा। मन समय का परिणाम है, यह बीते हुए कल की स्मृतियों पर आधारित है। क्या कल जो बीतते जा रहे हैं, उन सबके गुणनफल से मुक्त होना संभव है ? निश्चित ही यह गंभीर समस्या है, यह विश्वास या अविश्वास का मामला नहीं है।
विश्वास या अविश्वास करना तो अज्ञान की प्रक्रिया है, जबकि विचार के, समय में बांधने वाले लक्षण की समझ स्वतंत्रता लाती है और उसी में अन्वेषण हो पाता है। परंतु हममें से अधिकतर लोग विश्वास कर लेना चाहते हैं, क्योंकि यह ज्यादा सुविधाजनक रहता है। यह हमें सुरक्षा का, किसी समूह से जुडे़ होने का एहसास देता है। निश्चित रूप से यह विश्वास हमें पृथक करता है आप एक बात में विश्वास रखते हैं और मैं दूसरी में। तो विश्वास एक बाधा की तरह काम करता है, यह विघटन प्रक्रिया है।
अतः महत्त्व विश्वास या अविश्वास को पोसने का नहीं, अपितु यह समझ लेने का है कि यह मन ही है, विचार ही है, जो समय का निर्माण करता है। विचार समय है, और विचार जो भी प्रक्षेपित करेगा, वह समय के अंतर्गत ही होगा, इसलिए विचार संभवतः अपने आप से परे जा ही नहीं सकता। जो समय के पार है उसकी खोज करने के लिए विचार का अंत हो जाना चाहिए और यह अत्यंत दुष्कर है, क्योंकि विचार का अवसान अनुशासन से, नियंत्रण से, अस्वीकार या दमन से नहीं हो सकता। विचार का अवसान तभी होता है, जब हम विचार करने की समस्त प्रक्रिया को समझ लेते हैं तथा विचारणा को समझने के लिए अपने आप को देखना-जानना आवश्यक है। विचार ही ‘स्व’ है, विचार वह शब्द है, जो ‘मैं’ के रूप में अपनी पहचान बना लेता है, तथा उच्च या निम्न, चाहे जिस स्तर पर ‘स्व’ को रखा जाए, होता यह विचार के ही क्षेत्र में है।
कृष्णमूर्ति : सबसे पहले हमें यह पता लगाना चाहिए कि अवधारणा से हमारा मतलब क्या है। सोचने की प्रक्रिया से हमारा क्या अभिप्राय है ? क्योंकि अंततः हम जब किसी अवधारणा को प्रतिपादित करते हैं, जैसे ईश्वर को ही लें, तो हमारा यह प्रतिपादन यह अवधारणा हमारे संस्कारों का ही परिणाम होती है। एक तो वे लोग हैं जिन्हें बचपन से ही ईश्वर को न मानने में प्रशिक्षित किया गया है; और दूसरे वे हैं जिन्हें ईश्वर में विश्वास का प्रशिक्षण मिला है, जैसे कि आपमें से अधिकतर हैं। अत: हम अपने प्रशिक्षण के अनुसार, अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार, अपने मानसिक गठन, रुचियों-अरुचियों भय-आशाओं के अनुरूप ईश्वर की अवधारणा बना लेते हैं। तो स्पष्ट है कि जब तक हम अपने सोचने की प्रक्रिया को समझ नहीं लेते, मात्र ईश्वर की अवधारणाएं बना लेने का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि विचार तो अपनी रुचि के मुताबिक कुछ भी प्रक्षेपित कर सकता है। यह ईश्वर को निर्मित भी कर सकता है, नकार भी सकता है। हर व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियों सुखों व पीड़ाओं के अनुसार ईश्वर को आविष्कृत अथवा विनष्ट कर सकता है। इसलिए जब तक विचार सक्रिय है, नुस्खे बना रहा है, कल्पना कर रहा है, तब तक जो समय से परे है उसे कभी नहीं खोजा जा सकता। ईश्वर का यथार्थ का अन्वेषण केवल तभी हो पाता है, जब विचार का समापन हो जाता है।
अब, जब आप पूछते हैं, ‘‘आपका ईश्वर के बारे में क्या विचार है ?’’ तो आपने पहले से ही अपने विचारों की लीक बना ली है, है कि नहीं ? विचार ईश्वर को निर्मित कर सकता है तथा जो निर्माण इसने किया है, उसका अनुभव भी कर सकता है पर निश्चित ही वह सच्चा अनुभव नहीं है। यह तो विचार अपने प्रक्षेपण का ही अनुभव कर रहा है अतएव यह यथार्थ नहीं है। परंतु यदि आप और मैं इसकी गहराई को देख सकें, तो संभवतः विचारों के प्रक्षेपण मात्र से अधिक विराट किसी तत्त्व की अनुभूति कर पाएं।
वर्तमान समय में, जब दिन-ब-दिन बाह्य रूप से असुरक्षा बढ़ रही है, तो स्वभावतः आंतरिक सुरक्षा के लिए भी लालसा तीव्र होती जा रही है। चूंकि हमें बाहर सुरक्षा नहीं मिल पाती है, अतः हम इसे एक अवधारणा, एक विचार में खोजने लगते हैं और तब वह निर्मित कर लेते हैं, जिसे हम ईश्वर कहते हैं तथा वही अवधारणा हमारी सुरक्षा बन जाती है। सुरक्षा खोजने वाला मन यथार्थ को, सत्य को नहीं पा सकता है। जो समय से परे है, उसे समझने के लिए, विचार के जाल का ध्वस्त होना अनिवार्य है। शब्दों, प्रतीकों, प्रतिमाओं के बिना विचार बना नहीं रह सकता केवल तब, जब मन खामोश होता है, अपनी उधेड़बुन से मुक्त होता है, तभी यथार्थ को खोज पाने की संभावना होती है। अतः यह पूछना कि ईश्वर है या नहीं, समस्या के प्रति अपरिपक्व प्रतिक्रिया है। ईश्वर के बारे में मतों का प्रतिपादन करना वस्तुतः बचकानी वृत्ति है।
जो समय से परे है, उसकी अनुभूति, उसके बोध के लिए स्पष्टत: हमें समय की प्रक्रिया को समझना होगा। मन समय का परिणाम है, यह बीते हुए कल की स्मृतियों पर आधारित है। क्या कल जो बीतते जा रहे हैं, उन सबके गुणनफल से मुक्त होना संभव है ? निश्चित ही यह गंभीर समस्या है, यह विश्वास या अविश्वास का मामला नहीं है।
विश्वास या अविश्वास करना तो अज्ञान की प्रक्रिया है, जबकि विचार के, समय में बांधने वाले लक्षण की समझ स्वतंत्रता लाती है और उसी में अन्वेषण हो पाता है। परंतु हममें से अधिकतर लोग विश्वास कर लेना चाहते हैं, क्योंकि यह ज्यादा सुविधाजनक रहता है। यह हमें सुरक्षा का, किसी समूह से जुडे़ होने का एहसास देता है। निश्चित रूप से यह विश्वास हमें पृथक करता है आप एक बात में विश्वास रखते हैं और मैं दूसरी में। तो विश्वास एक बाधा की तरह काम करता है, यह विघटन प्रक्रिया है।
अतः महत्त्व विश्वास या अविश्वास को पोसने का नहीं, अपितु यह समझ लेने का है कि यह मन ही है, विचार ही है, जो समय का निर्माण करता है। विचार समय है, और विचार जो भी प्रक्षेपित करेगा, वह समय के अंतर्गत ही होगा, इसलिए विचार संभवतः अपने आप से परे जा ही नहीं सकता। जो समय के पार है उसकी खोज करने के लिए विचार का अंत हो जाना चाहिए और यह अत्यंत दुष्कर है, क्योंकि विचार का अवसान अनुशासन से, नियंत्रण से, अस्वीकार या दमन से नहीं हो सकता। विचार का अवसान तभी होता है, जब हम विचार करने की समस्त प्रक्रिया को समझ लेते हैं तथा विचारणा को समझने के लिए अपने आप को देखना-जानना आवश्यक है। विचार ही ‘स्व’ है, विचार वह शब्द है, जो ‘मैं’ के रूप में अपनी पहचान बना लेता है, तथा उच्च या निम्न, चाहे जिस स्तर पर ‘स्व’ को रखा जाए, होता यह विचार के ही क्षेत्र में है।
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